Add To collaction

लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 52 
आज मेरे स्वप्न में चक्रवर्ती सम्राट ययाति आये । मैं तो उन्हें पहचान ही नहीं पाया । कैसे पहचानता भला ? मैं तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में पैदा हुआ हूं । प्रत्येक पांच वर्ष के पश्चात एक "राजा" चुन लेता हूं । यद्यपि राजा भी वही घिसे पिटे लोगों में से चुनना पड़ता है । पर जो भी हो , एक दिन के लिए तो मैं भी राजा बन जाता हूं ना । ये उपलब्धि क्या कम है ? लोकतंत्र की यही विशेषता है कि वह सबको पांच साल में एक दिन राजा बनने का अवसर प्रदान करती है । पर राजतंत्र में तो राजा का बेटा राजा बनता है जैसे आजकल सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश का बेटा मुख्य न्यायाधीश बन जाता है । न कोई जनता के प्रति जवाबदेही और न किसी जांच ऐजेन्सी का डर ! जो चाहो, जैसा चाहो फैसला कर दो । रात को बारह बजे भी सुप्रीम कोर्ट खोलकर अपने चहेतों को जमानत दे दो ! कौन धणी धोरी है ? 

बात हो रही थी राजतंत्र की । मैंने कभी किसी चक्रवर्ती सम्राट देखा ही नहीं तो फिर उन्हें  कैसे पहचानता ? उन्हीं ने बताया कि वे ययाति हैं । मैंने उनकी बात पर विश्वास कर लिया । अरे भई, वे सतयुग के च्रकवर्ती सम्राट थे । सतयुग में आज की तरह सत्ता के लिए बच्चों की झूठी कसमें नहीं खाई जाती थी । गिरगिट की तरह घड़ी घड़ी रंग नहीं बदला जाता था । उन दिनों में "आम आदमी" ईमानदार हुआ करते थे, आज की तरह "कट्टर बेईमान" नहीं । फिर ययाति चक्रवर्ती सम्राट थे आखिर उनकी जबान का कोई मूल्य था । वे कोई आई आई टियन तो थे नहीं जो रोज रोज नौटंकी करके मीडिया में छाए रहें, उन्हें तो वैसे ही प्रसिद्धि मिली हुई थी । जब भी कभी कहीं पर भोग विलास की बात होती, ययाति का उल्लेख अवश्य होता था वहां पर । इसलिए ययाति को विज्ञापन देकर मीडिया को खरीदने की भी आवश्यकता नहीं थी । ययाति को "रायते" से भी कोई विशेष प्रेम नहीं था इसलिए वह न तो रायता खाते थे और न फैलाते थे । 

तो सपने में ययाति महाराज आये और कहने लगे "इस उपन्यास का नाम तो तुमने 'ययाति और देवयानी' रखा है किन्तु तुमने 51 भाग लिखने के पश्चात भी अभी तक मेरा उल्लेख तक नहीं किया है । मुझसे इस कदर द्वेष क्यों करते हो बंधु ? तुम पहले जयंती पर लिख रहे थे, कभी शर्मिष्ठा पर लिख रहे हो और देवयानी पर तो पन्नों पर पन्ने भरे जा रहे हो । सब कुछ महिलाओं पर ही लिख डालोगे क्या ? कुछ पुरुषों पर भी तो लिखो ! आखिर पुरुषों से इतनी घृणा क्यों है ? बोलो, जवाब दो" ? 

ययाति के प्रश्न सुनकर मैं चौंक गया था । मैंने इस रचना पर मनन किया तो पाया कि वास्तव में ययाति की शिकायत एकदम सही है । मैं शायद उन्हें भूल गया था । पर क्यों ? ययाति के अनुसार क्या मैं पुरुषों के प्रति द्वेष भावना रखता हूं ? मेरे मन से आवाज आई "नहीं, ऐसा तो नहीं है । मेरे लिए पुरुष और स्त्री दोनों बराबर हैं" । पर मानव स्वभाव अपनी जगह पर है ना ! एक पुरुष के मस्तिष्क में सदैव स्त्री ही तो रहती है । तो मैं कोई अलग हूं क्या ? पर ययाति नहीं मानते इस बात को । अब मुझे भी लगता है कि ययाति के प्रति मैं संभवत: इन्साफ नहीं कर पाया हूं । चलिए, भूल सुधार करते हुए अब ययाति को केन्द्र में ले आते हैं । देर आया, दुरस्त आयद । अब तक तो इस रचना के माध्यम से एक आश्रम का सादा जीवन जी रहे थे , अब आगे राजप्रासाद का भोग विलास जी लेते हैं । तो आइए अब कुटिया से निकल कर सीधे महल में चलते हैं । 

ईश्वर की लीला बड़ी विचित्र है । सबकी डोर उन्हीं के हाथों में है । वो जो चाहते हैं वही होता है । पर मनुष्य मानता ही नहीं है । वह स्वयं को परमात्मा मान बैठा है । मनुष्य बड़ा दंभ भरता है कि मैंने यह किया , मैंने वह किया । वह इसी में ही खुश है । पर हकीकत में तो करने वाला तो कोई और ही है । कौन राजा बनेगा , कौन रंक बनकर दर दर ठोकरें खाएगा , सब मनुष्य के कर्मों के फल से तय होता है । इंसान के हाथ में कुछ नहीं है । राजा का बड़ा पुत्र ही राजा बनेगा , यह एक परंपरा बन गई थी । जिस मनुष्य के कर्म श्रेष्ठ थे भगवान ने उसे राजा का ज्येष्ठ पुत्र बना दिया । बस, वह तो बड़े पुत्र के नाते स्वाभाविक रूप से राजा बन गया । इसमें उसका क्या योगदान है ? यदि वह किसी किसान के घर पैदा होता तो घास खोद रहा होता । सब ईश्वर की देन है परन्तु मनुष्य इसे नहीं मानता । वह स्वयं को कर्ता मान बैठा है । जिसको भगवान "आम" भी नहीं बनाना चाहते और "खास" भी नहीं बनाना चाहते , उसे राजा का द्वितीय, तृतीय पुत्र बना देते हैं । राजा तो बड़ा पुत्र ही बनेगा , बाकी के पुत्र बस भोग विलास करते रहो और मस्त रहो । राजपुत्र होने का इतना ही आनंद मिलेगा, बस ।

ययाति को भी भगवान ने बड़ा पुत्र नहीं बनाया इसलिए वह राजगद्दी का अधिकारी नहीं था । बड़ा पुत्र तो यति था , वह राज्य का स्वाभाविक उत्तराधिकारी था । बचपन से ही ययाति खेलने कूदने में और भोग विलास करने में ही लिप्त रहा । ययाति चक्रवर्ती सम्राट भरत का वंशज था । वही भरत जिसके नाम से इस देश का नाम "भारत" पड़ा । दुष्यंत और शकुन्तला का पुत्र । भरत वंश में ही सम्राट पुरूरवा पैदा हुए थे । ये वही पुरुरवा हैं जिनसे प्रेम करने के लिए अनिंद्य सुन्दरी अप्सरा उर्वशी को मृत्यु लोक में आना पड़ा था । प्रेम में इतनी शक्ति होती है कि वह स्वर्ग लोक से भी अप्सराओं को धरती पर खींच लाती है । उर्वशी इसका अनुपम उदाहरण है । पुरुरवा और उर्वशी के अनेक पुत्र, पुत्री हुए थे उनमें सबसे बड़े पुत्र थे "आयु" । आयु का विवाह राजकुमारी प्रभा से हो गया । आयु और प्रभा से सम्राट नहुष पैदा हुए और सम्राट नहुष का विवाह भगवान शंकर और माता पार्वती की पुत्री अशोक सुंदरी से हुआ । अशोक सुन्दरी की कहानी भी बड़ी विशेष है । चलिए, पहले उनके बारे में जान लेते हैं । 

भगवान शंकर और माता पार्वती का विवाह हो गया था । भगवान शंकर तो लक्ष्मीनारायण भगवान के अनन्य भक्त हैं , इसलिये वे सदैव उन्हीं का स्मरण करते रहते हैं । उन्हीं का ध्यान लगाते हैं और उन्हीं के ध्यान में समाधिस्थ भी हो जाते हैं । तो ऐसे में माता पार्वती क्या करें ? उन्हें अकेलापन खटकने लगता, काट खाने को दौड़ता । एक बार जब भगवान शंकर की समाधि समाप्त हुई तो माता पार्वती ने उन्हें अपनी अकेलेपन की समस्या बताई । भगवान शंकर तो भोलेनाथ हैं । वे सबकी सुनते हैं तो फिर माता पार्वती की क्यों नहीं सुनते ? 

बहुत सोच विचार के पश्चात भगवान शंकर ने विश्व भ्रमण का एक कार्यक्रम बनाया । महिलाओं को भ्रमण बहुत पसंद है । जब भी कभी घूमने फिरने की बात होती है तो सबसे अधिक प्रसन्नता पत्नियों को ही होती है । विश्व भ्रमण की बात सुनकर माता पार्वती प्रसन्न हो गईं और भ्रमण की तैयारी करने लगीं । 

भगवान शंकर उन्हें पहले स्वर्ग लोक घुमाने ले गये । स्वर्ग लोक को देखकर उनमें कहीं भोग विलास के भाव ना जाग्रत हो जायें, इसलिए शंकर भगवान उन्हें शीघ्र ही स्वर्ग लोक से अन्य लोक में लेकर जाने लगे । लेकिन माता पार्वती को जाते जाते "कल्प वृक्ष" दिखाई दे गया । उसे देखकर वे पूछ बैठीं 
"वो क्या है" ? 
"कल्प वृक्ष" है । 
"कल्प वृक्ष क्या होता है" ? 
"जैसे अन्य वृक्ष होते हैं वैसे ही कल्प वृक्ष होता है" 
"कैलाश पर्वत पर तो यह वृक्ष नहीं है । मैंने पहले कभी ऐसा वृक्ष नहीं देखा" । माता पार्वती की जिज्ञासा बढती जा रही थी । 
"हां, कैलाश पर कल्प वृक्ष नहीं है क्योंकि वहां इसकी आवश्यकता नहीं है" । 
"कौन सा फल आता है इसमें" ? 
"कामनाओं का अनंत फल आता है इसमें" । 
"कामनाओं का अनंत फल ? ये कौन सा फल है ? इसके बारे में मैंने कभी सुना नहीं" । एक जिज्ञासु भक्त की तरह वे निरंतर प्रश्न किये जा रही थीं । 
"कल्प वृक्ष के नीचे खड़े होकर जो कुछ भी मांगा जाये, कल्प वृक्ष वह चीज मांगने वाले को तुरंत दे देता है । एक बार कामना की पूर्ति होने के पश्चात अनेक कामनाऐं जन्म ले लेती हैं । और इस प्रकार मनुष्य कामनाओं के दलदल में धंसता चला जाता है । इसीलिए मैंने इसे कैलाश पर नहीं लगवाया । राग द्वेष, मोह माया , आसक्ति , कामनाओं से दूर व्यक्ति का ही उद्धार हो सकता है । कामनाओं के भंवर में फंसे हुए व्यक्ति का पतन सुनिश्चित है" । भगवान शंकर उन्हें समझाते हुए बोले । 
माता पार्वती ने जब से कल्प वृक्ष के बारे में भगवान शंकर से यह सुना कि वह मनचाही वस्तुओं को तत्क्षण प्रदान कर देता है , तब से माता पार्वती का ध्यान उसी कल्प वृक्ष में रम गया । वे सोचने लगीं कि भगवान शंकर तो देवलोक के राजा इंद्र से भी बड़े हैं इसलिए कल्प वृक्ष तो कैलाश पर्वत पर होना चाहिए न कि स्वर्ग लोक में । वे बोली 
"सुनो, हम स्वर्ग लोक से कल्प वृक्ष लेकर चलेंगे" । माता पार्वती ने अपना निर्णय सुना दिया था । 
"हम क्या करेंगे कल्प वृक्ष का ? हमें कामनाओं के दलदल में नहीं फंसना है" शंकर भगवान उन्हें समझाने लगे ? 
"मैं कुछ नहीं सुनना चाहती । एक बार कह दिया सो कह दिया" । 
माता पार्वती ने "त्रिया हठ" पकड़ लिया । बेचारे भोले भंडारी फंस गए । माता को सब तरह से मनाने का प्रयास किया किन्तु स्त्री तो स्त्री है, उसे कौन मना पाया है आज तक ? अंत में शंकर भगवान इन्द्र के दरबार में "याचक" बनकर गये । भगवान शंकर को अपने सम्मुख याचक के रूप में देखकर इन्द्र बहुत प्रसन्न हुआ । छोटे लोगों की सोच भी छोटी ही होती है । इन्द्र मन ही मन मुस्कुराया "अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे" । उसकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं था । पहले तो वह टाल-मटोल करता रहा किन्तु जब भगवान ने अपने तेवर सख्त कर लिये तब वह कल्प वृक्ष देने के लिए राजी हो गया । माता पार्वती कल्प वृक्ष को अपने साथ ले आयीं  । 

भगवान शंकर फिर से समाधिस्थ हो गये । माता पार्वती फिर से अकेली हो गईं । वे कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर सोचने लगीं कि काश उनके एक पुत्री होती तो वे उसका पालन करके अपना समय बिता लेती । बस, उनके सोचने भर की देरी थी , उनकी गोदी में एक बालिका आ गई । उन्होंने उसका नाम अशोक सुन्दरी रख दिया । चूंकि उस पुत्री ने माता पार्वती का "शोक" हर लिया था इसलिए उसका नाम (अ+शोक) रखा । वे बहुत ही सुन्दर थीं इसलिए "अशोक सुन्दरी" नामकरण हुआ ।  

जब भगवान शंकर की समाधि खुली तो अशोक सुन्दरी 13-14 वर्ष की बालिका हो गई थी । माता पार्वती ने अशोक सुन्दरी के जन्म लेने की कथा उन्हें सुना दी । भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए । माता पार्वती ने उसका विवाह चक्रवर्ती सम्राट नहुष से करने का वचन दे दिया । 

एक दिन अशोक सुन्दरी नन्दन वन में भ्रमण कर रही थी तो हुंड नामक एक राक्षस आया और वह अशोक सुन्दरी के सौन्दर्य पर मोहित हो गया । उसने अशोक सुन्दरी से प्रणय निवेदन किया और विवाह की इच्छा जताई । अशोक सुन्दरी ने कहा कि "मैं चक्रवर्ती सम्राट नहुष की वागदत्ता हूं" । पर राक्षस नहीं माना । तब नहुष और हुंड राक्षस में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें हुंड राक्षस मारा गया और अशोक सुन्दरी का विवाह नहुष के साथ हो गया । 

श्री हरि 
19.7.23 



   20
4 Comments

Abhilasha Deshpande

16-Aug-2023 10:49 AM

Nice

Reply

Hari Shanker Goyal "Hari"

16-Aug-2023 10:07 PM

धन्यवाद जी

Reply

Gunjan Kamal

20-Jul-2023 11:28 PM

👏👌

Reply

Hari Shanker Goyal "Hari"

21-Jul-2023 09:40 AM

🙏🙏

Reply